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उत्तराखंड के नए लैंड-लॉ: ‘बाहरियों’ के लिए जमीन खरीदने पर सख्ती, जानें क्यों?

उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड के बाद एक और बड़ा कदम, दूसरे राज्यों के लोग नहीं खरीद सकेंगे खेती की जमीन! बुधवार को मंजूरी पाए कानून में राज्य के 13 में से 11 जिले शामिल, जानें इस फैसले के पीछे की दो बड़ी वजहें।

उत्तराखंड में बढ़ती मांग के बीच पुष्कर सिंह धामी सरकार ने सख्त भू-कानून को दी मंजूरी, अब बाहरी लोग नहीं खरीद सकेंगे खेती और हॉर्टिकल्चर की ज़मीन! संशोधित ड्राफ्ट विधानसभा सत्र में पेश होगा, जानें क्यों जरूरी था ये कदम। पिछले एक दशक में खेती की ज़मीनों का बदलता इस्तेमाल रहा कारण।

नए कानून में क्या है खास? जानिए उत्तराखंड के सख्त भू-कानून के तहत क्या बदलाव आएंगे!

  • 2018 में रावत सरकार द्वारा बनाए गए भूमि कानून रद्द, अब बाहरी लोग 11 जिलों में खेती और बागवानी के लिए जमीन नहीं खरीद सकेंगे, हालांकि हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर को इसमें शामिल नहीं किया गया है।
  • पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने के नियमों में बदलाव, और जिला मजिस्ट्रेट को अब जमीन खरीदने पर मुहर लगाने की अनुमति नहीं होगी।
  • लैंड खरीदी-बिक्री के लिए एक ऑनलाइन पोर्टल लॉन्च किया जाएगा, जिससे डेटा व्यवस्थित रहेगा और किसी भी गड़बड़ी का पता चल सकेगा।
  • बाहरी लोगों को जमीन खरीदने के लिए एफिडेविट देना होगा और उनके उद्देश्य को स्पष्ट करना होगा।
  • यदि कोई नियमों का उल्लंघन कर जमीन खरीदता-बेचता है, तो सरकार उसे अपने कब्जे में ले सकती है।

इतनी सख्ती की जरूरत क्यों पड़ी? जानें, उत्तराखंड में नए भू-कानून के पीछे की अहम वजहें!


आजादी के बाद से उत्तर प्रदेश से अलग होकर राज्य बनने तक उत्तराखंड में जमीन खरीदने पर कोई रोक नहीं थी। शुरुआत में इस पर खास एतराज नहीं लिया गया, लेकिन बाद में बाहरी लोग सस्ती ज़मीन खरीदकर उसे अपने हिसाब से इस्तेमाल करने लगे। इसका असर ये हुआ कि धीरे-धीरे पहाड़ी इलाकों के स्थानीय लोग परेशान होने लगे। टूरिज्म के चलते बाहरी लोग फार्म हाउस, होटल और रिजॉर्ट्स बनाने लगे, जिसके कारण स्थानीय लोगों के लिए खेती की ज़मीन कम पड़ने लगी।

कितनी घट गई खेती लायक ज़मीन?

पहाड़ी इलाके में खेती करना आसान नहीं है, क्योंकि सिर्फ कुछ ही इलाकों में फसलें उगाई जा सकती हैं, और वो भी सीढ़ीदार तकनीक से। इस कारण, उपजाऊ ज़मीनों पर होटलों और रिसॉर्ट्स के बन जाने से राज्य में फसलों की कमी हो गई है। राज्य बनने के वक्त लगभग 7.70 लाख हेक्टेयर ज़मीन खेती के लिए उपयुक्त थी, लेकिन अब ये घटकर 5.68 लाख हेक्टेयर रह गई है। इस दौरान कई धांधलियां भी सामने आईं, जैसे टिहरी में किसानों को दी गई ज़मीन पर लैंड माफिया ने अवैध रूप से होटल और रिसॉर्ट्स बना लिए। इसके अलावा, जंगलों में भी गोरखधंधा चलने लगा।

उत्तराखंड को अलग राज्य बनने के बाद, स्थानीय लोगों का विरोध जमीनों पर सामने आने लगा। बाहरी निवेशकों ने कम कीमतों पर या गड़बड़ियों के जरिए स्थानीय लोगों की ज़मीनें खरीद लीं, और खेती लायक ज़मीनों पर कमर्शियल प्रोजेक्ट्स शुरू कर दिए। नतीजतन, स्थानीय लोगों के पास खेती-बाड़ी की ज़मीन बची नहीं, और ऊपर से बाहरी लोग सस्ती मजदूरी के लिए अपने ही श्रमिकों को लाकर काम पर लगा रहे थे। इससे लोकल्स में गुस्सा और असंतोष बढ़ता चला गया।

डेमोग्राफी को लेकर डर था, बाहरी प्रभाव से स्थानीय पहचान को खतरा था।

उत्तराखंड के लोगों में यह आशंका बढ़ने लगी कि अगर यह सिलसिला जारी रहा, तो उनका ही राज्य घट जाएगा और दूसरे राज्यों के लोगों का कब्जा बढ़ जाएगा। पिछले कुछ सालों में बाहरी राज्यों से आई आबादी में तेजी देखी गई, जिससे कुछ मीडिया रिपोर्ट्स ने इसे साजिश भी बताया। उत्तराखंड की सीमा चीन से सटी हुई है, और उसकी विस्तारवादी नीतियों को लेकर चिंता लगातार बढ़ रही है। इसके साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा और संसाधनों के बंटवारे को लेकर स्थानीय लोग भी नाराज हो गए हैं।

लगभग एक साल से यह काम जारी था।


पिछले साल सरकार ने नया कानून लाने का फैसला किया और इसके लिए एक हाई-लेवल कमेटी बनाई गई। इस कमेटी का काम मौजूदा लैंड लॉ की समीक्षा करना और उस पर एक नई रिपोर्ट तैयार करना था। कमेटी की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने नया ड्राफ्ट तैयार किया, जिसमें कई अहम बदलाव किए गए ताकि राज्य की खेती की जमीनों को सुरक्षित रखा जा सके और स्थानीय लोगों में बाहरी प्रभाव को लेकर बढ़ते गुस्से को कम किया जा सके।


लगभग सभी पहाड़ी राज्यों में ऐसा कानून लागू है।

देवभूमि अकेली जगह नहीं है, जहां खेती और हॉर्टिकल्चर पर सख्त कानून बन रहे हैं। ज्यादातर पहाड़ी राज्यों में यह नियम पहले से ही मौजूद हैं। जैसे पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में, जहां केवल स्थाई निवासी ही खेती की जमीन खरीद सकते हैं, और बाहरी लोगों को इसके लिए स्पेशल पर्मिशन लेनी होती है, जो बेहद मुश्किल है। इसी तरह सिक्किम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में भी बाहरी लोग खेती के लिए ही नहीं, अन्य के लिए भी जमीन नहीं ले सकते। इन कानूनों का उद्देश्य स्थानीय निवासियों के हक की रक्षा करना और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे से बचना है।